इन सूखी कड़कड़ाती पत्तीयों के बीच,
इन पतली चटकती टहनियों के बीच,
जो हवा चुपचाप सरसराती है,
वो अपनी खामोशी में भी
एक संदेश सुनाती है।
हमें नहीं होती आशा जिसकी,
ऐसा कुछ वो कहती है,
ये धरती हमेशा पीली नहीं रहेगी,
ऐसा ही कुछ तो गुनती है।
कि शरद स्वयं भीे जानता है,
जब उसका अंत हो जाता है,
तब हेमंत, शिशिर के बाद,
वसंत की दस्तक होते ही,
मौसम हरा-भरा हो जाता है।
फिर क्यों हम मानव समझ नहीं पाते,
कि ये तो एक दोहराता चक्र है,
कुछ यहाँ पर नहीं अचल,
ऐसा क्यों नहीं हमें सब्र है।
गर एक ये धीरज धर जाए,
तो आकुलता कुछ कम हो जाए,
और इस व्यथित मानव की,
ऊर्जा सही दिशा पा जाए।
बेशक भाई
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बेहद उम्दा अभिव्यक्ति है दोस्त
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