मुझे देव-दर्शन कर लेने दो

हिन्दू समाज में जन्मना जाति के आधार पर भेद-भाव एक विकट समस्या रही है। इतिहास में एक समय ऐसा भी आया की कलयुगी समाज और इसके तथाकथित, स्वघोषित ठेकेदारों ने समाज के एक वर्ग का मन्दिरों में प्रवेश प्रतिबन्धित कर उन्हें ईश्वर और देव-दर्शन से ही वंचित कर दिया था। अपनों द्वारा ही किए जा रहे इस अत्याचार के विरुद्ध मुखर होने का काम सर्वप्रथम हमारे समाज ने ही किया। चाहे वह रामानुजाचार्य का प्रत्यक्ष व्यवहार से दिया गया संदेश हो, या सन्त चोखमेळा की भक्ति और उस पर समाज की श्रद्धा, विश्वास, रामानन्द द्वारा ‘जातपात पूछे नहिं कोइ, हर को भजै सो हर का होइ’ कह सन्त रैदासजी (रविदास) को दीक्षित करना हो या फिर केरल के महाराजा बलराम वर्मा द्वारा मन्दिर प्रवेश अध्यादेश ही हो, भेदभाव हटाने के लिए लड़ने वाले सच्चे हिन्दू सन्तों, भक्तों, विचारकों की कमी नहीं रही। आज भी पंढरपुर के विठोबा को मन में बसाए जब भी कोई ‘अबीर गुलाल उधळीत रंग’ गाता है तो वह वारकरीयों के एकत्व, एकात्म-भाव का वरण कर, समस्त भेदभाव का प्रतिरोध भी कर रहा होता है। इसकी सार्थकता इस तथ्य में भी निहित है कि रचनात्मक प्रतिरोध के ये प्रयास सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के नाम पर सामाजिक विभाजन और कटुता के वाहक नहीं बनते, वरन् अपनी सफलता से समरसता को पोषित ही करते हैं।

स्वातंत्र्यवीर सावरकर उन्हीं महापुरुषों में से एक हैं जिन्होंने जन-जागृति के इस अभियान में अपनी सार्थक आहुति दी। कालापानी से निकल कर भी बन्दी जीवन जीने को विवश वीर सावरकर की प्रेरणा से ही मुम्बई में पतितपावन मन्दिर की स्थापना हुई थी। साथ ही हिन्दू समाज को संगठित करने हेतु सहभोज जैसे अनेकों कार्यक्रमों के माध्यम से भी स्वातंत्र्यवीर ने अस्पृश्यता के विरुद्ध आन्दोलन चलाए। आज इसी विषय पर वीर सावरकर द्वारा रचित एक कविता का मराठी से हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है :-

मूल मराठी पद ->

मला देवाचे दर्शन घेउ द्या,
डोळे भरून देवास मला पाहुं द्या।
जो तुम्हिच करा दिनरात,
मळ काढित मळले हात।
म्हणुनीच विमल हृदयात,
हृदय त्या वाहु द्या !
मी तहान जल तो जाण,
मी कुडि माझा तो प्राण।
मी भक्त नि तो भगवान,
चरण त्याचे शिवु द्या।
तो हिंदु-देव मी हिंदु,
मी दीन तो दया-सिंधू,
तुम्ही माझे धर्माचे बंधू,
अडवु नका जाउ द्या।


– स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर

हिन्दी अनुवाद का मेरा प्रयास ->

मुझे देव-दर्शन कर लेने दो,
आँख-भर देख लेने दो।
जो आप करते दिन-रात,
मल उठाते हुए मैले हाथ।
इसलिए इस निर्मल हृदय में,
उस हृदय को बह लेने दो।
मैं प्यासा, उसे जल जानो,
मैं शरीर, उसे आत्मा मानो।
मैं भक्त, वो भगवान,
उसके चरण छू लेने दो।
वो हिन्दू देव, मैं हिन्दू,
मैं दीन, वो दया-सिन्धु,
धर्म-बन्धु हो तुम मेरे,
रोको मत, जाने दो रे।


– स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर (अनूदित: निमित्त)

उपरोक्त अनुवाद करने में एक मित्र से अनमोल सहायता मिली। उस मित्र का अत्यन्त आभारी हूँ। शब्दशः अनुवाद और भावानुवाद करने के बीच तालमेल बैठाने का प्रयास किया है। यद्यपि यह काम दोनों भाषाओं के साहचर्य के कारण अत्यन्त सरल था। कोई वास्तविक कठिनाई हुई नहीं। किसी अनपेक्षित त्रुटि के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ।

यूँ तो निश्चित किया था की नियमित हो वृत्तियाँ (ब्लॉगपोस्ट) डालूँगा, किन्तु समय और दैव की गति की थाह किसे? परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनती चली गईं की इतने लम्बे अन्तराल बाद आज कुछ डाल पा रहा हूँ। अस्तु, शीघ्र मिल पाएँगे, इसी कामना के साथ आज्ञा चाहुँगा।

पुनश्च :- जब भी अस्पृश्यता का विषय आता है, और विशेषतः मन्दिर प्रवेश के सन्दर्भ में, तो सदैव अपने हिन्दी पाठ्यक्रम में पढ़ी श्री सियाराम शरण गुप्तजी की कविता 'एक फूल की चाह' की ये अत्यन्त विचारणीय पंक्तियाँ ध्यान आती हैं -

"ए, क्या मेरा कलुष बड़ा है
              देवी की गरिमा से भी;
किसी बात में हूँ मैं आगे
              माता की महिमा से भी?"

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